मेरे अंदर का शोर गूंजता है और लाता है जिसे बाहर,
उस से लिखता हूँ मै जो, उसे नाम नही देता शेर, ग़ज़ल, नज्म अशआर का
वो तो होते है बस बिखरें पन्नें मेरे
तन्हाई
तुम यंहा अपनी तन्हाई की बात किया करते हो,
हर शख़्स यंहा खुद में ही मशरूफ निकला।
कई साये आते जाते रहे उस आईने में मगर,
"गद्दार" साया कभी कोई उस से बाहर नहीं निकला।
1 comment:
क्या बात है! बहुत खूब।
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