Saturday 6 June 2015

एक ग़ज़ल नस्तर सी


यु मेरे अल्फ़ाज़ को आवाज़ को अहसास को
सीने में उठती इक कसक घुटती हुई सी साँस को

यु कहे “गद्दार” मुझ से कह भी दे जज्बात को
में कहु या ना कहु चुप ही रहा खामोश सा
और खोजता उस बात को और कोसता उस याद को
मेरे अहसासो की आवाज़े भी कुछ है बोलती
और मेरी हर उस बात को नज़रअंदाज़ भी अब में ही करू
उसकी नज़रो से मुझे अब भी शिकायत न रही
मेरी बाते जानकर हर फैसला उसने किया
दिल पे उसके घाव जो मेने दिए अब तक हरे
और पूछ कर यु हाल एक गुनाह मेने किया
जिंदगी बर्बाद करना यु मेरी आदत रही
न कभी सोचा था मेने खुद भी यूं हो जाऊंगा
क्या करू अब में बयान गुनाह मुझसे हो गया
होगा न हक़ में फैसला सबूत भी खिलाफ है
अब मेरे भी दिल में चुभे तंग से सवाल है
क्या करू जवाब उनको देने वाला अब नहीं
जिंदगी भी किसी की यु ख़त्म होती नहीं
में भी कैसे भुला ये रातें भी अब लंबी सी है
मेने खेले खेल ऐसे जिनकी यादे अब तलक
जिंदगी कितनी बड़ी है कैसे भुला में ये सब
माफ़ कर के वो मुझे माफ़ यु करता नहीं
क्या करू गुनाह मेरे माफ़ी लायक हो नहीं
मेरी हदो का इस तरह जवाब उसने यु दिया
कुछ भी ना कहकर उसने हद से ज्यादा कह दिया
डालकर हाशिये पे मुझको क्या चल रहा मन में तेरे
“गद्दार”  अगर में जान लू तो क्या कंहूँगा में तुम्हे
उसकी चाहत को यु मेने पत्थरो पे लिख दिया
पत्थरो से बह गए सैलाब आज कितने भी
मेने सोचा सोचकर होतो नहीं है कुछ भला
क्यों सोचकर करता हु में बर्बाद थोडा वक़्त भी
@गद्दार

No comments: