Saturday, 6 June 2015

उंगलियों पे तितलिया

शाम को बिछा कर बैठो,
बहते पानी सी फिसलती हो जैसे।

आफ़ताब से छुपती ओस की बुँदे,
नई सुबह सी संभलती हो जैसे।

मासूम सी मुस्कुराहट फिर रूठ जाना,
सोते बच्चे सी करवट बदलती हो जैसे।

नजरो से ओझल वो गली के मुहाने तक,
ठंडी सांसो सीआह निकलती हो जैसे।

इश्क़ की लागत पे दिल का टूट जाना,
आशिक के दिल सी बहलती हो जैसे।

आहट से तेरी बेचैन सा हो जाना,
गुलाब की खुश्बू सी महकती हो जैसे।

शब्-ए-हिज्र के गुजरते वक़्त पे,
नई दुल्हन सी सिसकती हो जैसे।

रंगी उंगलियों पे बैठी तितलियों के पर,
चंद पहेलियों सी सुलझती हो जैसे।

कच्ची सी नींद में उठ कर बैठ जाना,
अधखुले खवाबो सी उलझती हो जैसे।

“गद्दार” की बांहे खुलती किताब के पन्नें,

पढ़ने को” शिप्रा” सी मचलती हो जैसे।
@गद्दार
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