Monday, 8 June 2015

आग में जलाना चाहता हूँ।


ये उलझते हुए बादल, मन की उलझन की तरह,
उदासी भरी बारिश से खुद को बचाना चाहता हूँ।

घर को लौटू तो घर भी न मिले,
मुमकिन है रास्ता भुलाना चाहता हु।

मौजूद हु यंहा भी,मौजूद हु वंहा भी,
हाथ खुद के अब आग में जलाना चाहता हूँ।

रुक गया था मुहब्बत में मंजिल से पहले तक खुद को आकर साहिल पे अब डुबाना चाहता हूं...
@गद्दार

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