अलाव जलने दो कुछ और देर............
ऱोज हम कँहा बैठने वाले यूँ करीब..........
वो सर्द कहानियों सी बहती हवाएँ..............
सुनने रुको न तुम और एक पहर .........
चटकती लकड़ियों ये ख़ामोश निग़ाहें
कुरेदे से शोलों सी क्यूँ रखती हो मुझ पर
ठिठुरती हुई सी वो नाजुक उंगलियां
झांकती है लिहाफ़ से तुम्हारे और...
थामे हुए इक काफ़ी का मग......
ख्वाहिशें उठती है महकती सी बन धुँआ ...
तो अलाव जलने दो....
और हाँ
होंठो की तपिश से सुलगाई थी लकड़ियां
साँसों से फूंक फूंक कर जलायें रखना .....#गद्दार
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